डाबर उत्पाद न केवल भारत में प्रसिद्ध हैं। भारत में, तो इसके प्रोडक्ट लोग आंख मूंद कर ख़रीद लेते हैं. जो आयुर्वेदिक उत्पाद बनाने वाली कंपनी है, 138 वर्ष पुरानी है। डाबर हजमोला से डाबर च्यवनप्राश तक, कई उत्पाद बचपन का हिस्सा बन गए हैं।
एक छोटी कंपनी के रूप में आयुर्वेदिक दवाओं को बनाने के लिए, यह एक छोटे कोलकाता कमरे में शुरू हुई थी। आज डाबर समूह की गणना अग्रणी भारतीय एफएमसीजी कंपनी में की जाती है। डाबर इंडिया लिमिटेड लगभग 7,680 करोड़ रुपये से अधिक का वार्षिक कारोबार है. इसकी बाजार मूल्य 48,800 करोड़ रुपये से अधिक है।
डाबर दुनिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक आयुर्वेदिक और प्राकृतिक स्वास्थ्य देखभाल कंपनी है, जो भारत में एक भरोसेमंद नाम बन गई है। कहानी बहुत दिलचस्प है कि इसे नाम कैसे मिला आइए आज इसके बारे में पता लगाएं ...
डाबर की कहानी की शुरुआत होती है पश्चिम बंगाल के एक डॉक्टर के प्रयास से. उनका सपना था कि देश के दूर-दराज के इलाके में रहने वाले ग़रीब लोगों को भी प्रभावी और किफ़ायती इलाज मिले. इस डॉक्टर का नाम था एस. के. बर्मन. 1880 के दशक में भारत में डॉक्टर और दवाइयों का ख़र्च उठाना सबके बस की बात नहीं थी. यही वजह है कि उस ज़माने में हैजा और कालरा जैसी बीमारियों भी लोगों पर काल बनकर टूटती थीं और इन्हें महामारी कहा जाता था.
उस दौर में डॉ. बर्मन ने कुछ किफ़ायती दवाइयां आयुर्वेद की मदद से बनाई और इनसे लोगों का इलाज करने लगे. उनकी दवाइयां कारगर साबित हुई और लोग जल्दी स्वस्थ होने लगे. इस तरह डा. बर्मन भी लोगों के बीच काफ़ी प्रसिद्ध हो गए. दवाओं की इस सफलता से प्रसन्न होकर डॉ. बर्मन ने इन्हें बड़े पैमाने पर बनाने के बारे में सोचा ताकी ग़रीब लोगों को भी इलाज कम से कम क़ीमत पर मिल सके. इस उद्देश्य के साथ उन्होंने कोलकाता में अपने छोटे से कमरे में अपनी कंपनी की नींव रखी.
अब इसका नाम क्या रखा जाए ये भी एक दुविधा थी. उस दौर में लोग डॉक्टर को डाकटर कहते थे और उनका सरनेम बर्मन था. इसलिए डाकटर बर्मन कहकर लोग उन्हें बुलाते थे. इन्हीं दो शब्दों के पहले दो अक्षर डाकटर के डा(DA) और बर्मन के बर(BUR) को जोड़कर नाम निकला 'डाबर'. ये नाम उन्हें पसंद आया इस तरह 1884 में डॉक्टर बर्मन ने अपनी आयुर्वेदिक दवाओं की कंपनी खोली तो उसका नाम रखा 'डाबर'.
डाबर के उत्पादों की बढ़ती लोकप्रियता के साथ डॉ. बर्मन ने 1896 में इन्हें और बड़े पैमाने पर बनाने की ठानी. तब उन्होंने कोलकाता में ही एक बड़ी फ़ैक्टरी में इनका प्रोडक्शन शुरू कर दिया. उस दौर में डाबर ने उन बीमारियों की दवाइयां भी बनानी शुरू कर दीं जिनकी अंग्रेज़ी दवा मार्केट में उपलब्ध नहीं थी. इस तरह डाबर पर लोगों का भरोसा तेज़ी से बढ़ने लगा. 1920 के दशक में डाबर ने पारंपरिक आयुर्वेदिक दवाओं को वैज्ञानिक प्रक्रियाओं और गुणवत्ता जांच के हिसाब से बनाने के लिए ख़ुद की अनुसंधान प्रयोगशालाओं की भी स्थापना की.
70 के दशक में कंपनी ने अपना बेस कोलकाता से दिल्ली शिफ़्ट कर दिया. इससे पूरे देश और विदेशो में उनके प्रोडक्ट्स की पहुंच संभव हो सकी. आज डाबर 120 से अधिक देशों में अपने प्रोडक्ट्स सेल करती है. इस पर लोगों का भरोसा वैसा ही जैसे वर्षों पहले था.